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प्रेम और चाहत

मझे उससे प्रेम था,

उसे मेरी चाहत ।

कही, उसे पहुँचना था कहीं,

मुझे साथ के सफर में राहत ।।




उसे डर था बिछड़‌ने का,

मुझे साथ की खुशी थी।

मैं होता था उसके पास,

मेरे पास उसकी बेबशी थी ।।



मेरा पृथ्वी,

उसके सौर्यमंडल के किनारे घुमती थी।

उसकी अदाओं पे हँसता,

उसकी बातों पर झुमता था।।


उसके सर्य की किरण,

थोड़ी विचलित, घोड़ी अस्थिर ।

उसकी रौशनी कभी मेरी, कभी उसके माँ की कलाई को

चुमती थी |




उसे आनंद था जाने में,

मेरा हर्ष- गिङ-गिड़ाकर,

उसे वापस बुलाने में ।

हम दोनों निरंतर लगे रहे,

मैं उसे याद करने में, बो मुझे भूलाने में।।



बहुत दोस्त थे मेरे

उसका दोस्त बस मैं था।

उसको चाहत थी जहाँ कि, देने को मेरे पास,

बस कलमुहा समय था ।|


वो भागती रही,

मैं चलता रहा ।

वो संभलती गई,

मैं फिसलता रहा ।।



आँखें से जब वो ओझल हुई

मन में मेरे एक हलचल हुई।

झकझोरा मुझे एक ठंडी हवा ने

आँखों पे पर्दा लगा मैं हटाने ।।


देखा उसे

वो उस सी नहीं थी

पुछा उसे

तुम क्या वही या बस यही थी ।।


नजरें झुकाके,

उसने मुस्काया

अपने हाथों की

मेहंदी को दिखाया।।




इसी लम्हे से मैं डरता रहा,

वो भागती रही,

मैं चलता रहा।

उसकी भोर हुई

सांझ मेरी ढलती रही।।


अपनी कलम से

अपनी ज़ुबान मैं कुचलता रहा।

वो भागती रही

मैं चलता रहा।।



उसकी चिंता में जलता रहा,

कैसे रहेगी बिन मेरे

व्यर्थ ये भाव पलता रहा।।



खुद से आगे उसे रखने की

लगी हुई थी बुरी आदत।

मुझे उससे प्रेम था

उसे बस किसी के होने की चाहत।।



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